Raja Dashrath अयोध्या के राजा थे और उनके सबसे बड़े पुत्र का नाम राम था. आज के इस लेख में हम आपको शरू से परिचय सहित यह बता रहे है की उनका जन्म किस प्रकार से हुआ. यह सम्पूर्ण जानकारी इस लेख में पढ़ते हैं.
प्राचीन जगत यानी प्राचीन समय का कौशल प्रदेश जिसे आज सभी गोरखपुर के नाम से जानते हैं और जिसकी राजधानी अयोध्या थी. कौशल प्रदेश की स्थापना वैवस्वत मनु ने की थी और पवित्र सरयू नदी के तट पर यह राजधानी यानि अयोध्या स्थित हैं.
Raja Dashrath(राजा दशरथ)
वैवस्वत मनु के वंश में अनेको पराक्रमी , शूरवीर , प्रतिभाशाली और यशस्वी राजा हुए हैं जिनमे से राजा दशरथ भी एक प्रसिद्ध राजा थे. Raja Dashrath (राजा दशरथ) वेदों का ज्ञान रखते थे और धर्म के प्रति जिनकी गहरी आस्था थी और जो की बहुत ही दयालु भी थे. रण में वह अत्यंत ही कुशल योद्धा और प्रजापालक भी थे.

राजा दशरथ के राज में प्रजा को कोई दुःख नहीं थी और प्रजा अपना जीवन मौज से जीती थी और प्रजा बहुत ही सत्यनिष्ठ और इश्वर के प्रति पूरी ईश्वरभक्त थी. उनके राज में प्रजा एक दूसरे के प्रति किसी प्रकार का कोई बैर भाव या किसी भी तरह से घृणा नहीं करती थी.
राजा का सोचना
एक बार Raja Dashrath दिन के समय एक दर्पण यानी शीशे के सामने खड़े होकर अपने केश यानि बालों को देख रहे थे तो उन्हें अपने काले बालों में एक सफ़ेद रंग का बाल दिखाई दिया तो उन्होंने सोचा की अब मैं बूढा होता जा रहा हूँ और अब मेरे यौवन यानि युवावस्था का समय खत्म होने को हैं.
वंश और कुल की चिंता
यह सब सोचते – सोचते उन्हें Raja Dashrath को लगा कि हमारा वंश आगे कैसे बढेगा और अगर कोई संतान नही हुई तो राज्य का क्या होगा. यह सब सोचने के बाद उन्होंने पुत्रेष्टि यज्ञ करने की सोची और संकल्प लिया. इस तरह से राजा दशरथ ने अपने कुलगुरु महर्षि वशिष्ठ को बुलावा भिजवा दिया और उन्हें अपने मन में चल रहे विचारो और संकल्पों के बारे में बताया और उनसे यज्ञ के बारे में सभी नियम और विधान बताने की प्रार्थना की.
यज्ञ की आज्ञा देना
रजा दशरथ के विचारो को अच्छा जानकर और कल्याण के योग्य समझ कर ऋषि वशिष्ठ ने कहा की हे राजन पुत्रेष्टि यज्ञ करने से अवश्य ही आप की मनोकामना पूर्ण होगी ऐसा मेरा विश्वास हैं. अब आप जल्दी से अश्वमेध यज्ञ करने और इसके लिए एक बहुत ही सुंदर श्यामकर्ण अश्व यानी घोडा छोड़ने की व्यस्था करें.
यज्ञशाला निर्माण
गुरु वशिष्ठ की आज्ञा लेकर उनके बताये अनुसार ही महाराज दशरथ ने सरयू नदी के उत्तरी तट पर सुसज्जित और अत्यंत ही सुंदर और मनोरम यज्ञशाला का निर्माण करवाया तथा मंत्रियों और सेवको को सारी व्यवस्था संभालने को कहा और स्वयं Raja Dashrath अपनी तीनो रानियों के महल में जा पहुंचे और तीनो रानियों कौशल्या , कैकेयी और सुमित्रा को यह शुभ समाचार सुना दिया. महाराज दशरथ के मुख से यह बातें सुन कर सभी रानियाँ बहुत ही खुश हुई
यज्ञ का आरम्भ
राजा दशरथ(Raja Dashrath) के मंत्रीगण और सेवको ने महाराज की आज्ञा पाकर श्यामकर्ण घोडा और चतुरंगिनी सेना दोनों को छोड़ दिया. यह सब करने के पश्चात महाराज दशरथ ने देश और दूर प्रदेश के मनस्वी , तपस्वी , ऋषि – मुनियों और वेदविज्ञ और प्रकांड पंडितो को यज्ञ संपन्न करने के लिए बुलावा भेज दिया.
सही समय और शुभ मुहूर्त आने पर सभी अभ्यागतो के साथ राजा अपने गुरु वशिष्ठ जी और अपने परम मित्र अंग देश के अधिपति लोभपाद के जामाता ऋंग ऋषि को लेकर यज्ञ मंडप में आ पहुंचे. इस प्रकार से इस शुभ और एक बहुत ही महान यज्ञ का विधि – विधान के साथ शुभारम्भ किया गया.
दान और यज्ञ का प्रसाद
सम्पूर्ण वातावरण वेदों की ऋचाओ के उच्च स्वर और पाठों से गूंजने लगा और समिधा की सुगंध से महकने लगा. सभी पंडितो ब्राह्मणों , ऋषियों आदि को सभी प्रकार का धन – धान्य और गौ आदि भेंट की गयी और सादर विदा करने के साथ यज्ञ की समाप्ति हुई और Raja Dashrath ने यज्ञ का प्रसाद अपने महल में ले जाकर अपनी तीनो रानियों को खिला दिया.
भगवान राम का जन्म
प्रसाद ग्रहण करने के बाद भगवान की कृपा से तीनो रानियों ने गर्भधारण किया. चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र में सूर्य , मंगल , शनि , बृहस्पति और शुक्र अपने – अपने उच्च के स्थानों में विराजमान थे. कर्क लग्न का उदय होते ही Raja Dashrath की सबसे बड़ी रानी कौशल्या के गर्भ से एक शिशु का जन्म हुआ जो की श्यामवर्ण , अत्यंत ही तेजमय , परम कांतिवान तथा अद्भुत सौन्दर्यशाली था. उस शिशु को जो भी देखता वह मोहित हो जाता था क्यूंकि वह था ही बड़ा सुंदर.
यह सब होने के बाद शुभ नक्षत्रों और शुभ घडी में महारानी कैकयी को एक तथा राजा की तीसरी रानी सुमित्रा को दो तेजस्वी पुत्रो की प्राप्ति हुई. पूरे राज्य में आनन्द मन जाने लगा और खुशियों की लहर दौड़ गयी. महाराज दशरथ के चार पुत्रो के जन्म के उल्लास पर्व पर गंधर्व गान करने लगे और अप्सराएँ भी नृत्य करने लगी. सभी देवता अपने विमानों में बैठ कर पुष्पवर्षा करने लगे.
दान-दक्षिणा देना
महाराज दशरथ (Raja Dashrath) ने उलास के मारे होकर उनके द्वार पर आये हुए सभी भाट , चारण और आशीर्वाद देने वाले ब्राह्मणों और याचकों को सभी प्रकार से दान – दक्षिणा देकर विदा किया. महाराज ने अपनी प्रजा में भी धन – धान्य बंटवाया और सभी दरबारियों को भी रत्न , आभूषण और उपाधि आदि दी गई.
भगवान राम का नामकरण
महाराज दशरथ के चारो पुत्रो का नामकरण संस्कार महर्षि वसिष्ठ से कराया गया और उके नाम राम , भरत , लक्ष्मण और शत्रुघन रखे गए. महाराज दशरथ के बड़े पुत्र श्रीराम जी अपनी आयु बढ़ने के साथ-साथ गुणों और लोकप्रियता में भी अपने भाइयो से आगे बढ़ने लगे और धीरे-धीरे पूरे राज्य और फिर दूर-दूर तक उनकी ख्याति और प्रसिद्धि फ़ैल गयी.
अस्त्र-शस्त्र सीखना
श्रीराम जी के अन्दर एक अलग ही विलक्षण प्रतिभा थी जिसकी वजह से वह बहुत जल्दी सभी विषयों में अत्यंत ही निपुण हो गए. उन्हें सभी प्रकार के अस्त्र – शस्त्र चलाने और हाथी घोड़े और सभी प्रकार के वाहनों की सवारी में उन्हें असाधारण रूप से निपुणता प्राप्त हो गयी. श्रीराम जी हमेशा ही अपने माता – पिता और गुरुजनों की सेवा करने को तत्पर रहते थे. श्रीराम जी का अनुसरण उनके तीनो भाई भी किया करते थे.
राम लक्ष्मण भारत और शत्रुघन का प्रेम
चारो भाई श्रीराम , भरत , लक्ष्मण और शत्रुघ्न जितना अपने गुरुजनों के प्रति श्रद्धा भाव रखते थे उतना ही वे आपस में भी परस्पर प्रेम और स्नेह भी एक दुसरे से किया करते थे. जब महाराज दशरथ(Raja Dashrath) अपने चारो पुत्रों को इस तरह से देखा करते थे तो वह बहुत ही आनंद से भर जाते थे और चारो भाइयों का एक दूसरे के प्रति प्रेम देखकर खुश हुआ करते थे.
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